Friday 11 April 2014

Nawab Nazeebuldullah ki Qabar

Nawab Nazeebuldullah ki Qabar par Editor Armughan Monthly And Hafiz Idris Qureshi Sb

Monday 21 October 2013

राजस्थान >> नागौर ***दरगाह हज़रत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी***


कौमी एकता की अनूठी मिसाल सूफी हमीदुद्दीन की दरगाह

नागौर। जिला मुख्यालय स्थित हजरत सूफी हमीदुद्दीन नागौरी की दरगाह कौमी एकता का बेहद शानदार संगम स्थल है, जहां हर कौम, धर्म, मजहब व मिल्लत के लोग अकीदत और मोहब्बत के साथ सूफी साहब को खिराजे अकीदत पेश करने के लिए हाजिर होते हैं। 

सूफी हमीदुद्दीन नागौरी सुल्ताने हिन्द ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती अजमेरी के दूसरे बडे खलीफा है, जिनकी दरगाह में मुल्क भर से लोग बड़ी संख्या में आस्था लेकर हाजिर होते हैं।

हजरत सुल्तानुत्तारिकीन सूफी हमीदुद्दीन नागौरी का नाम मुहम्मद है और लकब हमीदुद्दीन, सुल्तानुत्तारिकीन, सवाली, सूफी, सईदी और नागौरी है। उनकी बीवी का नाम बीबी खदीजा था। वे लाडनूं के हजरत सैयद फुजैल अहमद हमदानी की बेटी थी। बीबी खदीजा की इबादतों रियाजत का आलम यह था कि हफ्ते में एक बार नीम के पत्तो से रोजा इफ्तार करती और घर के तमाम काम अल्लाह की इबादत करते हुए पूरे करती थी। सूफी हमीदुद्दीन नागौरी को कुरबानी, इबादतो रियाजत और सफकत की वजह से सुल्तानुत्तारेकीन कहा जाने लगा। बताया जाता है कि उन्होंने लोगों को समझाने के लिए सवाल जवाब का एक तरीका अपनाया था और मुनाजरे में भी उनका कोई सानी न था। इसी वजह से सवाली भी कहा जाता है। 

सूफी की दरगाह शरीफ में शानदार बुलंद दरवाजा बना हुआ है। पत्थर पर बारीक नक्काशी देखने लायक है। बताया जाता है कि आलीशान बुलंद दरवाजा 15 शाबानुल मुअज्जम 1730 हिजरी मुताबिक 1339 ईस्वी में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की हुकूमत के जमाने में तामीर हुआ। उनके मजार शरीफ पर कोई इमारत या गुम्बद बना हुआ नहीं है। उनका मजार शरीफ खुले आसमान में एक दरखत के नीचे है। 

सूफी हमीदुद्दीन ने अपनी जिन्दगी को बेहद सादगी से गुजारा और जो मिला उसी पर इत्मिनान व इत्तेफाक करते हुए रब का शुक्रिया अदा किया। वे अपनी शादीशुदा जिन्दगी नागौर में सादगी के साथ बसर कर रहे थे। गरीबी का आलम था। इसी वजह और हालात की बिना पर नागौर के हाकिम ने थोड़ी जमीन और कुछ रुपए हजरत की खिदमत में पेश किए मगर उन्होंने उसे नामंजूर कर दिया था। वे अक्सर रोजा रखते थे। वे हज भी कर चुके थे और नमाज पढ़ते थे तो खुदा-ए-पाक की इबादत में इतने खो जाते थे कि किसी की खबर ना होती। सूफी साहब कई बुजुर्गानेदीन से खतोकिताबत का सिलसिला भी जारी रखते थे। बताया जाता है कि नागौर का एक ताजिर हर साल तिल लेकर मुल्तान की मण्डी में बेचने के लिए जाता और वहां से रूई लेकर आता था। वे उसके साथ मुल्तान के बुजुर्ग हजरत बहाउद्दीन जकरिया के नाम खत भेजा करते थे। उन्हीं के हाथ वापस उसका जवाब भी मिल जाया करता था। सूफी साहब की बेशुमार करामते हैं जिन्हें बयान करना मुश्किल है। करामत के बारे में सूफी साहब ने अपने मुरीद सलाउद्दीन से फरमाया कि करामत को मर्दो का है, इसलिए कहते है कि हैज को औरत छुपाती है। इसी तरह वली अपनी करामत को छुपाते है ताकि मर्दो के बीच शर्मिंदा न हो। उनका एक वाक्या है कि वे एक बार लाडनूं से वापस आ रहे थे। रास्ते में एक जगह थोड़ा आराम करने के लिए बैठ गए। वहां से एक चींटी उनके कपड़ों पर लिपट कर नागौर आ गई। वे वापस गए और उसी जगह पर उस चींटी को छोड़ा जहां से वे उनके कपड़ों में चढ़ी थी।

Monday 1 July 2013

चाँदनी महल (परियों का आस्‍ताना, डेरा

मेहरबान अली कैरानवी (संवाद दाताः राष्ट्रीय सहारा हिन्‍दी ) ने पुस्‍तक 'कैराना कल और आज' के अपने लेख में लिखा है कि
चाँदनी महल
कैरानाः शामली कस्बे के बीच, भूरा कंडेला गांवों के राजबाहे की पटरी के निकट प्रसिद्ध चाँदनी महल (परियों का आस्‍ताना, आस्‍थाना,डेरा) आज वीरान होकर अपनी दूरदशा पर तो आंसु बहा रहा है लेकिन सैंकडों बरसों के बाद आज भी यहाँ पहुँचने वाले अक़ीदतमंदों को फेज़याब कर रहा है।
अकीदतमंदों का कहना है कि यहाँ जो भी सच्चे मन से आकर दरूदो पाक-फातिहा आदि कलाम पढ़ अल्लाह से इन बुजुर्गों के वसीले से दुआएं मांगता है अल्लाह उनकी मुराद ज़रूर पूरी करते हैं।
मालूम हुआ कि रात के समय में हर जुमेरात एवं पीर को यहां परियों एवं नेक रूहों की रूहानी मजलिसें भी होती हैं। इस लिए इसे परियों का डेरा भी कहा जाता है। में खुद भी यहां से फेजयाब हो चुका हूँ।